
तभी आकाश में धूप की एक पट्टी सी नज़र आयी, जैसे कैनवास के एक सिरे से दूसरे सिरे तक किसी ने पिले रंग से ब्रश घुमा दी हो। बरामदे से निकल कर देखा तो पता चला धूप निकल चुकी थी, बारिश भी थम चुकी थी और बादल भी धीरे धीरे छँट रहे थे। इस बात की ख़ुशी थी की चलो ये शाम बर्बाद होने से बच गयी, पर अब समस्या ये थी की इस शाम का सदुपयोग कैसे किया जाय। बाहर मुहल्ले में निकल कर इधर उधर घूमा, पर मेरे करामाती दोस्तों का कहीं पता नहीं था। बिलकुल उसी तरह जैसे तालाब में पत्थर फेंकने से सारे मेंढक पानी में ग़ायब हो जाते हैं और थोड़ी देर के बाद ही एक एक करके ऊपलाते हैं। मैंने अपने चारों तरफ़ नज़र डाली, हर तरफ़ पानी भरा था और मेरी हालत उस ऊपलाने वाले पहले मेंढक से ज़्यादा अलग नहीं थी। ये विचार आते ही मैंने सोचा, दोस्तों के जुटने से पहले कुछ और कर लिया जाय, पर क्या? तभी सोचा क्यों ना फलों के पेड़ों की ख़बर ले ली जाय। मुहल्ले में और आसपास आम, लीची, इमली, जामुन के बहुत से पेड़ थे और मौसम के हिसाब से पके फल हमें मिलते रहते । वैसे तो अमरूद के पेड़ भी काफ़ी थे पर उन्हें बाक़ी फलों की तरह इज्जत नहीं मिलती थी। शायद इसकी वजह ये थी की वो हमेशा आसानी से मिल जाते थे। किसी भी मौसम में अगर अच्छी तरह खोजा जाए एक ना एक पेड़ पर पके अमरूद ज़रूर मिल जाते।किसी और फल के मिलने की उस समय ज़्यादा गुंजाइश नहीं थी, इसलिए ये विचार भी छोड़ कर चहारदीवारी के ऊपर, पूरे मुहल्ले का एक चक्कर लगाने का मन बनाया।कम से कम पानी में घूमने से तो अच्छा ही रहेगा।
अभी चहारदीवारी के ऊपर घूमते घूमते थोड़ी दूर गया था की पास के एक आहाते को देख के रुक गया। यह एक ऐसा अहाता था जिसके बारे में हमें ज़्यादा मालूम नहीं था। यह काफ़ी ऊँची दीवारों से घिरा था और एक तरफ़ गेट लगा था, जिसमें हमेशा ताला लगा रहता। ताले में जंग लग चुका था और गेट के आसपास काफ़ी ऊँची ऊँची घास और झड़ियाँ उग आयी थी। हमने कभी भी किसी को उस आहाते में जाते या आते नहीं देखा था। उन दिनों हमें अपने घर के एक मील की परिधि में होने वाली हर घटना की जानकारी होती, जितना की आजकल सोशल मीडिया से कनेक्टेड बच्चों को भी नहीं होती। फिर मैंने सोचा अच्छा मौक़ा है सिर्फ़ मुआयना करके आ जाऊँगा, दोस्तों को बताने के लिए शायद कोई नई जानकारी मिल जाए।
थोड़ी देर बाद मैं अहाते की दीवार पर खड़ा था। ध्यान से अंदर की चीज़ों का निरीक्षण किया। एक तरफ़ जंग लगती हुई रद्दी चीज़ें पड़ी थी, दूसरी तरफ़ कुछ अमरूद के पेड़ थे और चारों तरफ़ घुटने जितनी ऊँची घास उग आयी थी। कुछ पके अमरूद भी पेड़ों पे नज़र आए, पर इसमें क्या नयी बात थी वो तो हमेशा रहते हैं और चंद अमरूदों के लिए मैं नीचे उतरने की ज़हमत नहीं लेने वाला। थोड़ा और पास जा के देखा तो पूरा मामला ही अलग दिखाई दिया। क़रीब आठ दस अमरूद के पेड़ों पे पचास से भी ज़्यादा पके अमरूद, उन्हें खाते हुए एक दर्जन से ज़्यादा तोते, चार पाँच ततैया के छत्ते और ज़मीन पर चिड़ियों द्वारा आधा खा के गिराए हुए अमरूदों का अम्बार। मुझे कुछ कुछ कोलंबस जैसा अनुभव हो रहा था, नयी जगह खोज निकालने का। अब मामला बदल चुका था, इतने सारे पके बेहतरीन अमरूदों को ऐसे ही छोड़ के जाना मुश्किल था।
ख़ैर, मैं नीचे उतरा और क़रीब पच्चीस तीस सबसे अच्छे अमरूद तोड़े। मेरी क़िस्मत अच्छी थी की ततैया के एक छत्ते को ग़लती से छेड़ने के बावजूद बाल बाल बच गया। अब इतने अमरूदों को रखने के लिए पॉकेट में जगह तो होती नहीं है। पर ऐसे मौक़ों के लिए जो हमारा जाना परखा जुगाड़ होता था उसका इस्तेमाल करना पड़ा। शर्ट को पैंट में खोंसने के बाद शर्ट का जो झोला बन जाता है उसका भरपूर इस्तेमाल हुआ। वैसे ये उपाय मम्मी पापा से छुपा के कॉमिक्स के आदान प्रदान में भी काफ़ी उपयोग में आता था। सारे अमरूदों को अपनी शर्ट में भरे शायद मैं खेतों में लगाए पुतले की तरह लग रहा होऊँगा,पर अपने दोस्तों के लिए सांता क्लाज से कम नहीं। उस दिन मुहल्ले में दोस्तों के साथ क्या ज़बरदस्त अमरूद पार्टी हुई, जिसे शायद ही उन दोस्तों में से कोई भूलेगा।
कई सालों बाद अमेरिका में रहते हुए न्यू जर्सी के किसी देसी दुकान में सब्ज़ियाँ ख़रीद रहा था। मेरी नज़र क़रीने से रखे मुस्टंडे अमरूदों पर पड़ी। अनायास ही मुझे अमरूद पार्टी याद आ गयी, अमरूदों का स्वाद लिए भी कई साल हो चुके थे, सोचा चलो कुछ ले लिए जाएँ। मैंने सबसे बड़े दो अमरूद पसंद कर लिए, थोड़ी देर बाद मैं पैसे देने के काउंटर पर था। एकाएक दुकानदार ने मुझसे पूछा क्या आप दोनों अमरूद लेंगे? भला ये कैसा सवाल हुआ, मुझे लगा कि शायद ज़्यादातर लोग दो अमरूद नहीं लेते होंगे। तभी मेरी नज़र प्रदर्शित मूल्य की तरफ़ गयी और सारा माजरा मेरी समझ में आया।हालाँकि अमरूद काफ़ी बड़े थे पर मैंने ये नहीं सोचा था की उनकी क़ीमत चावल के बोरे से भी ज़्यादा होगी, दुकान में मौजूद महँगे से महँगे फल से कम से कम तीन गुनी। अब मुझे दोनों अमरूद महाराज और महारानी की तरह लग रहे थे और दुकानदार द्वारपाल की तरह जो मुझसे पूछ रहा हो क्या चाहते हो बालक? मैंने धीरे से जवाब दिया अमरूद रहने दो इस बार। आज मुझे अमरूद की सही क़ीमत का अहसास हुआ था। भले ही आम को फलों का राजा कहते हैं पर उस दिन के बाद मेरे लिए फ़लों के महाराज अमरूद ही रहे और मैंने उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं की या उन्हें हल्के में नहीं लिया। यही सच है, वो चीज़ें जो हमेशा हमारे पास होती हैं हमें उनकी सही क़ीमत उनके दूर जाने के बाद ही महसूस होती है, और यही बात शायद लोगों पर भी लागू होती है।
~ अरुण कुमार
4 comments:
वाह भाईया आपने तो बचपन की याद दिला दी••••बहुत सुंदर प्रस्तुति संस्मरण की••!!!
धन्यवाद मिकी, ख़ुशी है कि तुम्हें अछी लगी।
Wow very nice , narreted very well touching our childjoch
अरुण भाई आपना अनुभवों को बखूबी सुंदर शब्दों में पिरोकर जिवंत व नयनाभिराम की अनुभूति..
अदभुत लेखन
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