Thursday, November 16, 2023

राष्ट्र-वसंत


I was looking for this poem for a very long time but I could not find it in full anywhere. I only       remembered first two lines which goes as below.

 

Piki Pukarati rahi Pukarate dhara gagan
Magar kahin ruke nahin vasant ke chapal charan  

However, I have found the full Kavita now and I am sharing it here below


___________________________________________

राष्ट्र-वसंत 


पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;

मगर कहीं रुके नहीं वसंत के चपल चरण


असंख्य काँपते नयन लिए विपिन हुआ विकल;

असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;

असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू-कुहू' पुकारती;

वियोगिनी वसंत के दिगन्त को निहारती


वियोग का अनल स्वयं विकल हुआ निदाघ बन;

मगर कहीं रुके नहीं वसंत के चपल चरण


वसंत एक दूत है, विराम जानता नहीं,

पुकार प्राण की सुना गया, कहीं पता नहीं;

वसंत एक वेग है, वसंत एक गान है;

जगत-सरोज में सुगंध का मधुर विहान है


कि प्रीति के पराग का वसंत एक जागरण,

कभी कहीं रुके नहीं वसंत के चपल चरण


वसंत की पुकार है - धरा सुहागिनी रहे;

प्रभा सुहासिनी रहे, कली सुवासिनी रहे;

की जीर्ण-शीर्ण विश्व का ह्रदय सदा तरुण रहे;

हरीतिमा मिटे नहीं, कपोल चिर अरुण रहें


कि जन्म के सुहास का रुके नहीं कहीं सृजन,

इसीलिए विकल सदा वसंत के चपल चरण


शिशिर समीर से कभी वसंत है गला नहीं;

निदाघ-दाह से कभी डरा नहीं, जला नहीं;

विनाश-पंथ पर पथिक वसंत है अजर-अमर;

नवीन कल्पना, नवीन साधना, नवीन स्वर


कि पल्लवित नवीन जन्म पा रहा सदा मरण;

नवीन छन्द रच रहे वसंत के चपल चरण


~ पंडित रामदयाल पांडेय 


 


 

 

No comments: