I was looking for this poem for a very long time but I could not find it in full anywhere. I only remembered first two lines which goes as below.
However, I have found the full Kavita now and I am sharing it here below
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राष्ट्र-वसंत
पिकी पुकारती रही, पुकारते धरा-गगन;
मगर कहीं रुके नहीं वसंत के चपल चरण |
असंख्य काँपते नयन लिए विपिन हुआ विकल;
असंख्य बाहु हैं विकल, कि प्राण हैं रहे मचल;
असंख्य कंठ खोलकर 'कुहू-कुहू' पुकारती;
वियोगिनी वसंत के दिगन्त को निहारती |
वियोग का अनल स्वयं विकल हुआ निदाघ बन;
मगर कहीं रुके नहीं वसंत के चपल चरण |
वसंत एक दूत है, विराम जानता नहीं,
पुकार प्राण की सुना गया, कहीं पता नहीं;
वसंत एक वेग है, वसंत एक गान है;
जगत-सरोज में सुगंध का मधुर विहान है |
कि प्रीति के पराग का वसंत एक जागरण,
कभी कहीं रुके नहीं वसंत के चपल चरण |
वसंत की पुकार है - धरा सुहागिनी रहे;
प्रभा सुहासिनी रहे, कली सुवासिनी रहे;
की जीर्ण-शीर्ण विश्व का ह्रदय सदा तरुण रहे;
हरीतिमा मिटे नहीं, कपोल चिर अरुण रहें |
कि जन्म के सुहास का रुके नहीं कहीं सृजन,
इसीलिए विकल सदा वसंत के चपल चरण |
शिशिर समीर से कभी वसंत है गला नहीं;
निदाघ-दाह से कभी डरा नहीं, जला नहीं;
विनाश-पंथ पर पथिक वसंत है अजर-अमर;
नवीन कल्पना, नवीन साधना, नवीन स्वर |
कि पल्लवित नवीन जन्म पा रहा सदा मरण;
नवीन छन्द रच रहे वसंत के चपल चरण |
~ पंडित रामदयाल पांडेय