Saturday, April 12, 2014

गुस्सा छोटा सा




बिटिया रानी छोटी सी
चोटी बांधे मोटी सी ।
एक दांत है टूटा सा
गुस्से से मुँह फूला सा ।

बिल्ली के पीछे ना दौड़ी आज
मची ना धमा-कचौड़ी आज ।
तोते से ना बात किया
बकरी को ना घास दिया ।

क्या किसी ने डाँटा है
या कोई खिलौना टूटा है ।
मैंने पूछा क्या हुआ ?
चूहे ने फ्रॉक कुतर दिया ! 

Friday, April 11, 2014

पतझड़ और वसंत



पतझड़ और वसंत
हाय कितना निष्ठुर था वो पतझड़,
जीवन युक्त होकर भी कितने
निर्जीव लगते थे वो वृक्ष,
न कोई संवाद, न वाद-विवाद,
बस खड़े खड़े सहते रहते थे,
शिशिर की नम रातों में
उग्र समीर का आर्तनाद
हे शशि इस तम् के सागर
का कोई है क्या पार कहीं,
कैसे सहते हैं जीव सभी
इस शीत रिपु के सर्प दंश
निरुत्तर शशि, मौन धरा
स्तंभित शतदल, क्षीण प्रभा
संकुचित होकर शशि,
घनदल के पीछे छिप चला,
मीलों दूर किसी श्रृगाल ने
सहमति में हुंकार भरा


जीवन का है चहुँ ओर प्रकाश,
कण कण में हैं अशंख्य प्राण
चारों ओर हो रहा मधुर गान,
नव छंद नव रंग ले आया नया विहान
यह कौन नया आगंतुक है ?
जिसके स्वागत में सजी दिशाएं सारी ,
महक रही फूलों की खुशबू से क्यारी क्यारी
पीकी तू ही बता दे,
किसका संदेशा पहुचाने तू फिरती है मारी मारी
उन्ही पुराने वृक्षों ने भी नए नए पत्ते पाए
अनगिनत फूलों से रंजित, अनेकों मकरंदों से सुसज्जित
सारा चमन मधुमय है सारा आलम मंगलमय
चारों ओर कोलाहल है जीवन का प्रतिपल सृजन
तभी कहीं से छोटी तितली पर फैलाती
थोड़ा शर्माती इठलाती फिर, दूर जरा उड़ जाती
कभी इस फूल कभी उस कली
कभी पास पास कभी दूर चली
कभी हवा के झोंके से लड़ती
कभी फूल के पास पहुच के भी सहमी सहमी रुकी रहती,
आखिर एक फूल उसे पसंद आया, और वो उसपर बैठ गयी
वृछ हँसे फिर अपनी डालियों को हिला,
मानो एक दुसरे से कहा,
पतझड़ के गर्भ से जन्मा
जीवन का कितना सुन्दर ये क्रम !


-- अरुण कुमार
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