मेरा बचपन
बचपन में पके आमों को देख
एक बार मन मचल गया
ढेले फेंके, पत्थर फेंके
पुरवईया का भी ईंतजार किया ,
पत्ते गिरते, धूल उड़ती
पर आम न गिरने पाते थे
अपनी डाली पे झूल झूल
बस मुझे चिढाये जाते थे
थक हार के घर को जाने को
मैं जभी वापस मुड़ता था ,
तभी कहीं से 'कू' करके
कोयलिया मुझे उकसाती थी
तभी चाचा जी ने देख लिया
और आम तोड़ के मुझे दिया
थोड़ा गुस्सा थोड़ा लाढ़
मैंने चाचा जी से पूछा
मैं क्यों आम नहीं तोड़ पाता
गोद में लिया, फिर पुचकारा
बेटे जब तुम बड़े हो जाओगे
तुम भी आम तोड़ पाओगे
गाँव की धूल भरी सडकों पे
नंगे पाँव दौड़े जाते थे
भैया की साईकिल पे बैठ बैठे
फूले नहीं समाते थे
संकरी गलियां, कच्चे रास्ते
गाँव का पोखर, शिवालय
घर से खलिहान, खलिहान से घर
साईकिल के डंडे पे बैठा ऊँकडू
सोचता जाता
कितना अच्छा होता जो
मैं भी साईकिल चला पाता
दादी जी जाती, कौन से हाट
जरा वो भी देख आता
एक दिन जिद पर अड़ गया
तो भैया ने प्यार से समझाया
तुम हो छोटे, तुम्हारे हाथ भी छोटे
इतना ही नहीं, तुम्हारे पैर भी छोटे
जब तुम भी बड़े हो जाना
तब जितनी जी चाहे
तुम भी साईकिल चला लेना
अब बड़ा हो गया हूँ
शहर की भीड़ में खो गया हूँ
सहमे हुए चेहरों के बीच
रंग बिरंगी रौशनी में,
अरुणाभ क्षितिज का रंग भूल गया हूँ
जीवन की आपा धापी में
मोटरगाड़ियों के रेले में
किसी अपने की तो क्या,
अपनी आवाज भी परायी लगाती है
हवा में महुए की खुशबू ना सही
आमों में मधुरता कम लगाती है
क्या अब कोयलिया नहीं गाती,
क्या अब मुंडेरों पे गौरैया घोंसला नहीं बनाती
सावन की पहली फुहारों से
मिट्टी की सोंधी खुशबू नहीं आती
ले को कोई मेरी किताबें
चाहे ले लो मेरी साईकिल
मुझे बड़ा नहीं होना,
चाहे ले लो मेरा यौवन
पर एकबार फिर से कोई
लौटा दे मेरा बचपन
बचपन में पके आमों को देख
एक बार मन मचल गया
ढेले फेंके, पत्थर फेंके
पुरवईया का भी ईंतजार किया ,
पत्ते गिरते, धूल उड़ती
पर आम न गिरने पाते थे
अपनी डाली पे झूल झूल
बस मुझे चिढाये जाते थे
थक हार के घर को जाने को
मैं जभी वापस मुड़ता था ,
तभी कहीं से 'कू' करके
कोयलिया मुझे उकसाती थी
तभी चाचा जी ने देख लिया
और आम तोड़ के मुझे दिया
थोड़ा गुस्सा थोड़ा लाढ़
मैंने चाचा जी से पूछा
मैं क्यों आम नहीं तोड़ पाता
गोद में लिया, फिर पुचकारा
बेटे जब तुम बड़े हो जाओगे
तुम भी आम तोड़ पाओगे
गाँव की धूल भरी सडकों पे
नंगे पाँव दौड़े जाते थे
भैया की साईकिल पे बैठ बैठे
फूले नहीं समाते थे
संकरी गलियां, कच्चे रास्ते
गाँव का पोखर, शिवालय
घर से खलिहान, खलिहान से घर
साईकिल के डंडे पे बैठा ऊँकडू
सोचता जाता
कितना अच्छा होता जो
मैं भी साईकिल चला पाता
दादी जी जाती, कौन से हाट
जरा वो भी देख आता
एक दिन जिद पर अड़ गया
तो भैया ने प्यार से समझाया
तुम हो छोटे, तुम्हारे हाथ भी छोटे
इतना ही नहीं, तुम्हारे पैर भी छोटे
जब तुम भी बड़े हो जाना
तब जितनी जी चाहे
तुम भी साईकिल चला लेना
अब बड़ा हो गया हूँ
शहर की भीड़ में खो गया हूँ
सहमे हुए चेहरों के बीच
रंग बिरंगी रौशनी में,
अरुणाभ क्षितिज का रंग भूल गया हूँ
जीवन की आपा धापी में
मोटरगाड़ियों के रेले में
किसी अपने की तो क्या,
अपनी आवाज भी परायी लगाती है
हवा में महुए की खुशबू ना सही
आमों में मधुरता कम लगाती है
क्या अब कोयलिया नहीं गाती,
क्या अब मुंडेरों पे गौरैया घोंसला नहीं बनाती
सावन की पहली फुहारों से
मिट्टी की सोंधी खुशबू नहीं आती
ले को कोई मेरी किताबें
चाहे ले लो मेरी साईकिल
मुझे बड़ा नहीं होना,
चाहे ले लो मेरा यौवन
पर एकबार फिर से कोई
लौटा दे मेरा बचपन
-- अरुण कुमार
2 comments:
Great to see you composing...composing Hindi poems was once my favorite hobby but somehow it could not stand before the loads of liabilities that popped up very early in my life...now after reading your beautiful poems the poet in my heart is again rising
Please do write Arvind, I am sure you can write really good. Always remember we have only one life to live!
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