याद नहीं आता कहाँ से शुरू करूँ, यादों की परछाइयाँ एक दूसरे से उलझी सी आँखों के सामने तैर जाती हैं। एक कोना पकड़ने की कोशिश करता हूँ तो दूसरा छू कर निकल जाता है। फिर एकाएक अपने को एक बियाबान में पाता हूँ अकूत सन्नाटा है जहां बहुत कम लोग आते जाते हैं, मुकुल जी उनमें से एक थे और अब ये आवाजाही और कम हो जाएगी। बहुमुखी प्रतिभा के धनी मुकुल जी से मेरा पहला परिचय बीआईटी मेसरा में हुआ जब मैं अपना स्नातकोत्तर कर रहा था और वे भी । ना वो मेरी कक्षा में थे ना ही मेरे शहर से या और भी कोई अन्य प्रत्यक्ष समानता परंतु एक ही वह डोर थी जो हमें बांधती थी वो थी विचारों की समानता और शायद यही एक सूत्र परम है अन्यथा तो हम बहुत से कृत्रिम सूत्रों से लोगों को बांध लेते हैं जो ना तो स्थायी होते हैं और ना ही मज़बूत। दुबले पतले परंतु बेहद सिद्धांतवादी, किसी को भी खरी खरी उसके सामने बोल देने वाले परंतु दीन व्यक्ति के लिए करुणा से भरे, ये थे हमारे मुकुल जी। वैसे तो मुकुल जी आईटी प्रोफ़ेशनल थे पर उनके अपने शब्दों में “मैं एक किसान हूँ जो अभी खेती नहीं करता है”, हृदय से वे किसान ही रहे।
ऐसी अनगिनत घटनाएँ होंगी जब मुकुल जी ने किसी राह चलते ज़रूरतमंद व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाया या पानी पिलाया या कोई और मदद की, एक कोमल हृदय व्यक्ति होने की वजह से वे किसी मजबूर व्यक्ति को विपदा में छोड़ कर आगे नहीं जा सकते थे। शायद २००३ की बात है जब मैं नोएडा में रहता था, मुकुल जी भी वहीं रहते थे और शेष जीवन वहीं रहे। मैं एक बार उनसे मिलने उनके घर गया जहां संजय जी भी उनके साथ रहते थे। शाम का समय था और ऐसा विचार हुआ की गली में हलवाई की दुकान पर जा के समोसों का आनंद लिया जाए। जब हम दुकान के सामने खड़े होकर समोसों के तैयार होने का इंतज़ार कर रहे थे और आपस में देश काल की समस्याओं पर वार्तालाप भी चल रहा था। जैसा कि भारत में अक्सर देखा जाता है छोटे मोटे होटलों और खाने के ठेलों पर छोटे छोटे बच्चों को काम पर रखा जाता है। हालाँकि इसके ख़िलाफ़ सरकार ने नियम बनाएँ हैं पर वे काग़ज़ों तक ही सीमित हैं, वे कभी बाल श्रम को खत्म करने में प्रभावी नहीं रहे। एक ११-१२ साल का बच्चा हमें प्लेट में समोसे देने आया। मुकुल जी ने कुछ कौतूहल कुछ शिष्टाचार वश उससे पूछ लिया
“बाबू कैसे हो”।
“कैसे रहेंगे सर ग़रीब हैं मेहनत मज़दूरी करते हैं, शाम के समय खेलने नहीं जा सकते क्योंकि काम करना है”
बात मुकुल जी को चुभ गयी, उन्होंने भीगी आँखों से उनकी जेब में सौ सौ के जितने नोट थे सब उस बच्चे को दे दिए। बच्चा हतप्रभ था, उसे यह उम्मीद हरगिज़ नहीं थी। बच्चा पैसे लेने में ना नुकुर करता रहा पर मुकुल जी के सामने उसकी एक ना चली।
आज सुबह सुबह संजय जी का संदेश आया की मुकुल जी एक लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद कोरोना महामारी से जंग हार गए। इस त्रासदी में जब पूरा भारत इस महामारी की चपेट में है मुकुल जी एक हॉस्पिटल बेड एक रेमेडेसिविर इंजेक्शन की लड़ाई लड़ते लड़ते इस दुनिया को अलविदा कह गए। मुकुल जी जिन्होंने सारी ज़िंदगी जरूरतमंदों की मदद की उनको अगर उनकी ज़रूरत के समय सही स्वास्थ्य सुविधा मिल जाती तो आज वो हमारे बीच होते। सरकार, समाज, व्यवस्था सभी ने उन्हें निराश किया, किसकी कितनी ज़िम्मेदारी है यह तो आने वाले दिन महीने और साल तय करेंगे पर आज की परम सत्य यह है की मुकुल जी हमारे साथ नहीं हैं। शायद यह समाज ही आपके योग्य नहीं था मुकुल जी जहां कहीं भी हों आपको शांति मिले और सुखी रहें यही कामना है।
मुकुल जी की कहानियाँ प्रतिलिपि पर